Marsia

(1)
क़ैद से छूट के जब सय्यदे सज्जाद आये
और सब अहले हरम बादिले नाशाद आये
बाप और भाई जो बीमार को वां याद आये
क़ब्र पर बाप की करते हुए फर्याद आये

ऐ पदर तूल खींचा अब मेरी बीमारी को
उठके छाती से लगा लीजिये आज़ारी को


(2)
आपसे अपनी असीरी के कहूँ क्या हालात
खैंचा खैंचा मैं फिरा ऐ पदरे नेक सिफ़ात
क़ैद ख़ाने में अजब तौर के देखे आफ़ात
आप से छुट के न मैं चैन से सोया एक रात

आँख गर हालते गश मैं कभी खुल जाती थी
कान मैं नालाए ज़हरा की सदा आती थी


(3)
इस क़दर पर्दा नशीनों को सताते थे शरीर
कोई रोती थी तो दिखलाते थे नेज़ा बे पीर
नाला कर सकता न था कोई सिवाए ज़ंजीर
सफरे शाम की इज़ा की करूँ क्या तक़रीर

एक तो तौक़ से गर्दन को गराँबारी थी
दूसरे पाऊँ की ज़ंजीर बोहोत भारी थी


(4)
पाऊँ का गर मैं लईनों को दिखाता था वरम
ख़ंदाह ज़न होते थे जूं ज़ख़्म लबे एहले सितम
लोहूँ तलवों से टपकता था जो मेरे पैहम
हर क़दम लाले का तख़्ता था मेरे ज़ेरे क़दम

झटके ज़ंजीर के जब फ़ौज ए लईं देती थी
नातवानी मेरा तब हाथ पकड़ लेती थी


(5)
तेवर आए थे हर एक गाम पा ऐ बाबा इमाम
बैद की शक्ल से लरज़ां था मेरा सब अनदाम
रगड़े देती थी हथेली की जो ऊँटों की ज़माम
सूरते पंजा-ए-मरजाँ था मेरा हाथ तमाम

क्या कहूँ हाल था जैसा के मेरी गर्दन का
गोया था तौक़ गले में मेरे सत्तर मन का


(6)
बा ख़ुदा मैंने सभी ज़ुल्म सहे बे एकराह
आपका सर तो हर एक जाँ पा था मेरे हमराह
पाऊँ मेरा ना डिगा राहे रज़ा से वल्लाह
बेड़ियाँ पाऊँ की साबित क़दामी की हैं गवाह

सख़्तियाँ खेंची ना मूँह से किये नाले मैं ने
काँटे तलवों में चुभे पर ना निकाले मैं ने


(7)
मां फुपी मेरी जो हर इक है मरयम सनी
बलवे में देखता था उनकी मैं सर उरयानी
पाली हुई आपकी गोदी की सकीना जानी
ऊँट पर कहती चली जाती थी पानी पानी

शिमर जब घुड़कियाँ उस लाडली को देता था
मेरा बस कुछ नहीं चलता था मैं रो देता था


(8)
गर किसी शहर के नज़दीक पहुँचते थे हम
लोग उस बसती के आते थे तमाशे को बहम
पूछते थे जो लईनों से वो अहवाल ए हरम
कहते थे मेरी तरफ़ करके इशाराह अज़लम

इस का कुनबा ये चढ़ा ऊँटों पा नंगे सर है
ये फूपी इसकी है ये अम्मा है ये ख़वाहर है


(9)
मरक़दे शाह पा करते थे ये आबिद तक़रीर
गिर पड़ी आके जो उस क़ब्र पा ज़ैनब दिलगीर
रोके चिल्लाने लगी ऐ मेरे भाई शब्बीर
क़ैद से छुट के आई है तुम्हारी हमशीर

प्यार से हाल तो कुछ अपनी बहन का पूछो
सख़्तियाँ क़ैद की और रंज रसन का पूछो


(10)
अपनी माँ जाई से पूछो तो सफ़र की हालत
कूफ़े में शाम में देख आई है क्या क्या आफ़त
याद थी मुझको वसीयत जो तुम्हारी हज़रत
मुझको जो रंज हुआ उसको मैं समझी राहत

बिन मेरे आपको किस शक्ल से चैन आया है
ध्यान मेरा कभी ऐ भाई हुसैन आया है


(11)
ज़िंदगी में तो बोहोत थी मैं तुम्हारी प्यारी
तुम किया करते थे क्या क्या मेरी ख़ातिर दारी
अपनी माँ जाई से क्या तुमको है कुछ बेज़ारी
आज सुनते नहीं क्यूँ मेरी फ़ुग़ाँ-ओ-ज़ारी

उठके मरक़द से मेरा हाल तो देखो भाई
अपने मातम में खुले बाल तो देखो भाई


(12)
पाईंती क़ब्र की करने लगी बानो ये बयाँ
मेरे वारिस मेरे साहब मैं तुम्हें ढूँडू कहाँ
दर बदर शाम की बस्ती में फिरी सर उरयां
आपके बाद फँसी क़ैद में ऐ शाहे ज़मां

बहरे ख़िदमत ना मुझे पास बुलाया तुमने
अपनी इस लौंडी को ऐसा ही भुलाया तुमने


(13)
घर में बाद आपके जब फ़ौजे मुख़ालिफ़ आई
करके मूँह तब सूए मक़तल मैं बोहोत चिल्लाई
या हुसैन इबने अली लुटती है ये दुःख पाई
बहना भी आपकी कहती रही भाई भाई

ना तो हज़रत मुझे आफ़त से छुड़ाने आए
और ना अकबर मेरी चादर को बचाने आए


(14)
मरक़दे शाह पा ये कह रही थी बानो खड़ी
क़ब्रे अब्बास पा थी बानुए अब्बास पड़ी
अपना सर पीटती थी ग़म से हर एक छोटी बड़ी
जारी हर चश्म से थी मुत्तसिल अशकों की लड़ी

एक तरफ़ पीट के सब एहले हरम रोते थे
आबिद एक सिम्त को गर्दन किये ख़म रोते थे


(15)
थाम कर दिल को ये करने लगे सज्जाद कलाम
मरक़दे शाह पा इस तादा हुए हज़रत के ख्याम
सार बानो ने सुना जबके ये इरशादे इमाम
अध जला ख़ैमाए सरवर किया इस्तादा तमाम

दाख़िले ख़ैमा हुए जबके हरम सरवर के
बैन सब करने लगे ख़ाक से मुँह भर भर के


(16)
ख़ाली ख़ैमे में जो थी मसनदे शब्बीर बिछी
बीच में ख़ून से आलूदा धरी थी पगड़ी
और धरी थी सिप-रे-हमज़ाओ शमशीर अली
ख़ाली मसनद पा नज़र पड़ गई जब ज़ैनब की

लेके मसनद की बालाऐं ये पुकारी ज़ैनब
भाई की लोहू भरी पगड़ी के वारी ज़ैनब


(17)
जलवा गर होते थे मसनद पा जो भाई शब्बीर
और मुजरे के लिए जाती थी उनकी हमशीर
सदक़े मैं उनके मेरी करते थे क्या क्या तौक़ीर
आगे मसनद के बिठा लेते थे शाहे दिलगीर

मेरे बैठे हुए आराम अगर करते थे
बदले तकये के मेरे ज़ानू पा सर धरते थे


(18)
ख़ैमे में कर रही थीं ज़ैनबे मख़रूँ ये बयाँ
डिवड़ी पर सय्यादे सज्जाद थे मशख़ूले फुग़ाँ
थे कई क़ौम के मक़तल से जो नज़दीक मकाँ
आए थे ख़िदमते सज्जाद में सब ख़ुरदो कलाँ

कितने शब्बीर की मज़लूमी का ग़म खाते थे
कितने बैठे हुए सज्जाद को समझते थे


(19)
देखा आबिद ने हुई रोने से फ़ुरसत जो ज़रा
इक जवाँ बेल लिए सामने शशदर है खड़ा
मिस्ल आईना है सूरत की तरफ़ देख रहा
उसको सज्जाद ने नज़दीक बुलाकर पूछा

कौन है तू जो ये हैरत की फ़रावानी है
ऐ जवाँ तुझको ये किस अम्र में हैरानी है


(20)
अर्ज़ की उसने मैं रखता हूँ ज़राअत इसजाँ
क़ौम औलाद असद से हूँ मैं इक अब्दे ख़ुदा
पासबाँ अपनी ज़राअत का हूँ हर सूबहो मसा
मैंने इस अरसे में देखे हैं अजाइब क्या क्या

थोड़ी सी फ़ौज से पहले तो ये सरवर आया
उससे फिर लड़ने को इक शाम का लश्कर आया


(21)
अब बयाँ क्या करूँ कैसी थी वो थोड़ी सी सिपाह
ख़ूब ही फ़ौज थी और ख़ूब था उस फ़ौज का शाह
कुछ जवाँ और कई तिफ़्ल थे उसके हमराह
जिनकी तस्वीर से होती थी ख़ज्ल सूर-ते-माह

गरचे उस फ़ौज में अस्वार बोहोत थोड़े थे
बूए गुल थे वो जवाँ मिस्ल सबा घोड़े थे


(22)
दोनों उन फ़ौजों से हर चंद ना था कुछ मुझे काम
पर मैं ये कहता था अब देखये क्या हो अंजाम
फिर के चारों तरफ़ उन फ़ौजों के देखा जो तमाम
उस तरफ़ कुफ़्र की बू थी यहाँ बूए इस्लाम

जो बोहोत फ़ौज थी देखी वो बोहोत नाहक़ पर
और ये कम फ़ौज नज़र आई सरापा हक़ पर


(23)
क़िस्सा कोताह कई रोज़ ये थोड़ी सी सिपाह
रही उस फ़ौज के नरग़े में के जूं हाला में माह
किसी को पहुँचा बाहम खाना ना पानी वल्लाह
घोड़े भी टापते थे फ़ौज में बे दाना-ओ-काह

लड़के ख़ैमे से निकल पानी बस तकते थे
जीबें सूखी थीं पा दरया पा ना जा सकते थे


(24)
था जो नज़दीक बोहोत मेरी ज़राअत का मकाँ
साफ़ जाती थी वहाँ तशनादहानों की फुग़ाँ
लड़कियाँ होती थीं जब प्यास के मारे नालाँ
बीबियाँ कहती थीं ऐ प्यारियों यहाँ पानी कहाँ

उनकी फ़रयाद से गो छाती फटी जाती थी
पर मैं हैरान था कुछ मुझको ना बन आती थी


(25)
शबे आशूराह मुहर्रम को अजब था कोहराम
थोड़ी सी फ़ौज ये मशग़ूल थी ताअत में तमाम
सूबह को मुस्तईद-ए-जंग हुए सब साकिने शाम
मैं खड़ा कहता था अब देखिए क्या हो अंजाम

नौबते नेज़ा-ओ-शमशीर फिर आई रन में
सामने मेरे लगी होने लड़ाई रन में


(26)
इस तरफ़ के मैं जवानों का करूँ वसफ अब क्या
जो गया लड़ने को फिर ख़ैमें में वो जीता ना फ़िरा
सामना जंग में एक एक ने लश्कर का किया
कुश्तो के पुश्ते किये खूँ का बहाया दरिया

जो प्यादा हुआ मरकब से सवारों से लड़ा
और तो क्या कहूँ एक एक हज़ारों से लड़ा


(27)
शाह की फ़ौज का जब कट गया लश्कर सारा
फौजे ज़ालिम मैं दोबारा हुआ फिर नक़्क़ारा
हाकिमे फौजे मुखालिफ ने ये नारा मारा
लड़ने अब आएगा उस शाह का हर एक प्यारा

ऐ शुजाआने अरब अब ये हिम्मत का वक़्त
तब शुजाअत का ना था अब है शुजाअत का वक़्त


(28)
इतने मैं खैमे से लड़ने को गए दो गुलरू
चाँद से मुखडो पा हाले से पड़े थे गेसुं
देख कर उनको ये कहने लगे आपस मैं उदू
भांजे उस शहे बेकस के हैं दोनों खुश खू

जब वो निकले थे बोहत बीबियां घबराई थीं
खेमें की डिवडी तलक साथ चली आयी थीं


(29)
आके उन दोनों ने की ऐसी ही रन मैं तलवार
कितने पैदल किये मजरूह किये कितने सवार
खूब प्यासे थे कई दिन से वो दोनों दिलदार
सूखे होंठों पा ज़बान फेरते थे वो हर बार

ज़ख्म खाते थे मगर पीठ नहीं देते थे
बरछियाँ खाते थे और नामे अली लेते थे


(30)
जबके मारे गए मैदान मैं वो गुल अंदाम
मैंने देखा था के सब काँप गए शह के खयाम
उनके बाद और कई रन में जवां आये काम
दूल्हा एक खेमे से निकला था के जूं माहे तमाम

फूल की शक्ल से मुरझाया था चेहरा उसका
अभी मुंह पर से बढ़ाया न था सेहरा उसका


(31)
बीबियां कहती थीं हरचंद के मैदान को न जा
आस्ती पकड़े थी दूल्हा की कोई  पटका
मादर उस दूल्हा की कहती थी बा फ़रयादो बुका
बीबियों जाने दो बेटे को मेरे बहरे खुदा

है ये मैदाने शहादत इसे जी खोने दो
सुर्खरू हैदरो ज़हरा से मुझे होने दो


(32)
उम्र मैं गरचे वो दूल्हा था निहायत ही सगीर
खैंचि पर उसने दिलेरों की तरह से शमशीर
लड़ा इस दर्जा ही मैदान मैं वो माहे मुनीर
सुम से घोड़ों के जो पामाल हुआ वक़्ते अखीर

ज़लज़ला लश्करे ज़ालिम मैं फिर एक बार आया
थोड़ी उस फ़ौज का जब रन में अलमदार आया


(33)
उस अलमदार की तारीफ मैं क़ासिर है ज़बां
चशमे गरदूँ ने नहीं देखा कोई ऐसा जवां
हालाते ख़श्म में हो जाता था जूं शेरे ज़ियां
दमे साबित क़दमी होता था जूं कोहे गरां

नूर खुर्शीद सा था आरिज़े नूरानी पर
चाँद सी शक्ल थी और खाल था पेशानी पर


(34)
जबके मैदान मैं आया वो अलमदारे जरी
घोड़ा था राने मुबारक के तले शकले परी
सूखी सी मश्क थी इक ज़ीन के हरने पा धरी
नहर में जाते ही बस पहले तो वो मश्क भरी

फिर उसे घेर लिया आके जफ़ाकारों ने
तीर बारां किये तन्हा पा कमादारों ने


(35)
मश्क तीरों से बचाता रहा कितना वो जवां
पर हज़ारों के निशानों से वो बचती थी कहां
मश्क पर तीर लगा हो गया पानी भी रवां
हाथ तक कट गए उस बाजु-ए-सरवर के वहां

जब गिरा घोड़े से यूँ नाम लिया भाई का
देखिये आन के नक्शा मेरी सक़्क़ाई का


(36)
जबअलमदार की उस शह ने सदा सुन पाई
आये जंग्गाह मैं कहते हुए भाई भाई
इस तरहाँ  लाश पा रोया वो दमे तनहाई
उसके रोने से वहां मुझको भी रिक़्क़त आई

फिर मैं समझा के अब ये रह गया तन्हा बाक़ी
जब अलमदार हुआ क़त्ल रहा क्या बाक़ी


(37)
लेके वो मश्को अलम शाह गए सूए खयाम
निकला फिर खेमे से एक और जवां गुलअंदाम
मैं तो आगाह ना था कहते थे सब साकिने शाम
ये जवां सुरते अहमद से मुशाबेह है तमाम

एहले किन कहते थे ये लख्ते जिगर है शह का
और सब मर चुके बाक़ी ये पिसार है शह का


(38)
उसकी शमशीर ज़नी की करूँ किस मूँह से सना
आती थी अर्श से आवाज़ यही सल्लेअला
उस अकेले पा तो फिर हो गया इक हशर बपा
ख़ूब तलवार से मारे बोहोत और ख़ूब लड़ा

अपने सीने पा जब उस मह ने सिना खाई थी
बीबी एक ख़ैमा-ए-अक़दस से निकल आई थी


(39)
जबके मारा गया जंगाह में वो ग़ैरते माह
तने तनहा रहा मैदाने सितम में वो शाह
फिर तो उस शह पा हुआ नरग़ाए फ़ौजे गुमराह
क्या बयाँ उसकी शजाअत करूँ अल्लाह अल्लाह

उस अकेले पा तो थी तीरों की बौछार कभी
तीर पड़ते थे कभी पड़ती थी तलवार कभी


(40)
तेग़ पर तेग़ लगाते थे उसे एहले जफ़ा
ज़िक्रे माबूद में मसरूफ था वो अब्दे ख़ुदा
नागहां ख़ैमा-ए-असमत में उठा शोरे बुका
सुनके फ़रयाद का ग़ुल शाह वो ख़ैमे में गया

क्या कहूँ किस तरह ख़ैमे से वो बाहर आया
एक बच्चा लिये हाथों पा वो सरवर आया


(41)
सामने फ़ौजे मुख़ालिफ़ के ये फ़िर की तक़रीर
शिददते प्यास से मरता है मेरा तिफले सग़ीर
कह रहा था ये लईनों से अभी वो दिलगीर
किसी बेदर्द ने उस बच्चे के मारा इक तीर

कुछ बाजुज़ शुक्र ज़बां पर ना वो बेकस लाया
खोद कर नन्ही लहद बच्चे को फिर दफ़नाया


(42)
दफ़ने मासूम से फ़ारिग़ ना हुआ था वो शाह
यक-ब-यक टूट पड़ा उसपा गिरोहे गुमराह
बेकसी उस शहे दिलगीर की मैं क्या कहूँ आह
उसकी मज़लूमी पा मैं रोया था ख़ालिक़ है गवाह

भूक में प्यास में जाँबाज़ी का दम भरता था
वार वो खाता था और ज़िकरे ख़ुदा करता था


(43)
जिस्म पर लगता था उस शाह के जिस दम हरबा
एक बीबी की मैं आवाज़ खड़ा सुनता था
बाप से अपने वो कहती थी बा फ़रयादो बुका
मारते हैं मेरे फ़र्ज़न्द को देखो बाबा

कैसा बेकस है तुम्हारा ये नवासा हज़रत
क़त्ल होता है कई रोज़ का प्यासा हज़रत


(44)
रू-बरू मेरे वो शह ख़ाक पा घोड़े से गिरा
रू-बरू मेरे वो था सजदाए आख़िर में झुका
रू-बरू मेरे कटा तेग़ से उस शह का गला
रू-बरू मेरे वो सर नोक पा नेज़े की चढ़ा

तीरगी रोज़ में उस वक़्त बाशिददत आई
मैं ये समझा के ज़माने में क़यामत आई


(45)
धँस पड़ी ख़ैमा ए नामूस में फ़ौजे कुफ़्फ़ार
आग सब परदा सराचों में लगादी यकबार
वाअली हाए मुहम्मद की थी हर सम्त पुकार
हाए उस दम की मुसीबत मैं करूँ क्या इज़हार

आग से जलके क़नातें तो वहाँ गिरती थीं
बीबियाँ गोदियों में बच्चे लिये फिरती थीं


(46)
आग जिस वक़्त लगादी तो ना गुज़री कुछ देर
जलके वो ख़ैमे सरा हो गया सब राख का ढेर
एक बीमार जो बाक़ी था बचा ज़लीत से सेर
दोहरी ज़ंजीरों में जकड़ा था उसे सूरते शेर

क्या बताऊँ तुम्हें अब शक्ल उस आज़ारी की
थी तुम्हारी सी सब शक्ल उस आज़ारी की


(47)
नंगे सर ऊटों पा बिठलाने लगे सब को शरीर
जाँबे शाम रवाना लगे होने बे पीर
क्या कहूँ राह से मक़तल के जो गुज़रे थे असीर
एक लड़की का अजब हाल था उसदम तग़ीर

मदआइ कहते थे चुप रह तो ना चुप रहती थी
मुत्तसिल हाए पिदर हाए पिदरकहती थी


(48)
मुझको हैरत तो बड़ी ये है के था कौन वो शाह
क्यूँ उसे क़त्ल किया ऐसा था क्या उसका गुनाह
सुनके ये आबिदे मुज़तर का हुआ हाल तबाह
उससे इस तौर से कहने लगे बा नाला-ओ-आह

वो जो बरबाद हुआ रन में वो घर था मेरा
जिसका सर कट गया वो शाह पिदर था मेरा


(49)
नाम से क्या मेरे बाबा के नहीं तुझको ख़बर
नाम उस शाह का लिक्खा है दरे जन्नत पर
नाम शब्बीर है उस शाह का पर है बेसर
बेटा ख़ातूने क़यामत का है अहमद का जिगर

ज़ालिमों ने उसे आफ़त में फँसाकर मारा
ख़त हज़ारों ही लिखे घर से बुलाकर मारा


(50)
सजदे में पुश्त पा नाना की वो जब होता सवार
तूल सजदे को नबी देते ब-हुक्मे ग़फ़्फ़ार
और गला चूमते थे उसका रसूले मुख़्तार
लहमका लहमी भी फ़रमाते थे शाहे अबरार

कहते थे अहमदे मुख़्तार मेरे नूरूल ऐन
ऐहले जन्नत के हैं सरदार हसन और हुसैन


(51)
झूला जिबरील झूलाते थे कभी उस शह का
खिलअते ईदा से भेजा था रब्बे हुदा
मदहा क़ुरआन में फ़रमाता है उस शह की ख़ुदा
हैफ उस शाह पा बेदीनों ने की ऐसी जफ़ा

उसको काँधे पा चढ़ाते थे रसूले अरबी
ऊँट बनते थे कभी उसके लिये ख़त्मे नबी


(52)
साथ बाबा के हैं जो जो के यहाँ क़त्ल हुए
सत्तराह शख़्स थे उन सब में यगाने मेरे
बाक़ी थे और जो अनसार शहे बेकस के
फ़िल-हक़ीक़त वो अज़ीज़ों से ना मुतलक़ कम थे

ग़म से हर एक दिलावर के पयंबर रोए
ढाँपा मुँह फ़तेमा ने ख़ुल्द में हैदर रोए


(53)
क्या यगानों का करूँ हाल बा तफ़सील बयाँ
गिरया होता है बयाँ करने से क़ासिर है ज़बाँ
रन में मारे गए अब्बास के दो भाई जवाँ
कट गए मुस्लिमे मज़लूम के दो राहते जाँ

टुकड़े टुकड़े हुए मैदान में फ़र्ज़न्दे अक़ील
दोनों मारे गए मैदान में फ़र्ज़न्दे अक़ील


(54)
गेसुओं वाले जो दो तिफ़्ल हुए हैं बेसर
हाय वो दोनों थे मेरी फुपी ज़ैनब के पिसर
उनकी तारीफ़ बजा है वो ना लड़ते क्योंकर
जिनकी नानी हैं बुतूल और है ज़ैनब मादर

पोते थे हज़रते जाफ़र के वो प्यासे दोनों
और थे हैदेर-ए-सफ़दर के नवासे दोनों


(55)
सेहरा बांधे हुए सर कट गया जिस दूल्हा का
वो मेरा भाई चचेरा था हसन का बेटा
दूसरा वैसा ज़माने में ना होगा दूल्हा
रात को ब्याह हुआ सुबहो को वो क़त्ल हुआ

ग़म में उस दूल्हा के जब उसकी बनी रोती थी
मेरे ख़ैमे में अजब सीना ज़नी होती थी


(56)
जिसकी तलवार शजाआने अरब ने मानी
वो अलमदार था शब्बीर का जाफ़र सानी
प्यार करता था बोहोत उसको नबी का जानी
शह की बेटी के लिये लेने गया था पानी

आशिक़े ज़ार वो बाबा से सिवा था मेरा
नाम अब्बास था उसका वो चचा था मेरा


(57)
जिसको सब कहते थे हम सूरते महबूबे इलाह
था मेरा भाई हक़ीक़ी वो जवाँ ग़ैरते माह
खाके नेज़ा वो गिरा घोड़े से जब नागाह
काँप उट्ठा अर्श भी उस दर्द से रोए थे शाह

बाल खोले हुए जो बीबी निकल आई थी
फ़ुपी ज़ैनब मेरी शब्बीर की माजाई थी


(58)
शह के हाथों पा जो इक तिफ़्ल हुआ था बेजाँ
हाल पर रोए थे जिस तिफ़्ल के सब पीर-ओ-जवाँ
वो मेरा भाई था छोटा अली असग़र नादाँ
माँ का उस बच्चे की क्या हाल करूँ तुझसे बयाँ

देखके उसके शलूकों को वो जाँ खोती थी
ख़ाली गहवारे पे सर अपना धरे रोती थी


(59)
हाल शब्बीर का ख़ुर्शीद से है रौशन तर
जिस तरह हल्क़ पर उस प्यासे के फेरा ख़ंजर
मुझको तो होश ना था तप से दमे क़त्ल ए पिदर
पर सुना है वो ज़बाँ फ़ेरता था होटों पर

फ़ुपि कहती हैं जब उस शह पा छुरी चलती थी
रूह ज़हरा की वहाँ हाथ खड़े मलती थी


(60)
रन में जब मारा गया था मेरा बाबा शब्बीर
ख़ैमे में तप से मेरा हाल था उस दम तग़ीर
ख़ैमा ए आले मुहम्मद में दर आए थे शरीर
बहुएँ और बेटियाँ ज़हरा की हुई थीं सब असीर

ग़म से होंटों पा दम आया था मुझ आज़ारी का
हाल क्या तुझसे कहूँ अपनी गिरफ़्तारी का


(61)
दर बदर शाम में आदा ने फ़िरया हमको
बेड़ी पाऊँ में पड़ी तौक़ पिनहाया हमको
कह नहीं सकते जो कुछ रंज दिखाया हमको
क़ैदे ज़ालिम से ख़ुदा ने है छुड़ाया हमको

सदक़े इस ख़ाक पा होने के लिये आया हूँ
क़ब्र पर बाप की रोने के लिये आया हूँ


(62)
रो-रो दहक़ाँ से किया जबके ये आबिद ने बयाँ
ऐसा वो रोया के बाक़ी ना रही ताबो तवाँ
क़ब्रे शह पर रहे इक रोज़ तो सब गिरया कुनाँ
दूसरे रोज़ हुए वहाँ से मदीने को रवाँ

आगे दिलगीर अब इस दर्द के हालात ना कह
ज़ैनब-ओ-आबिद-ओ-सुग़रा की मुलाक़ात ना कह


(1)
قید سے چھوٹ کے جب سیّدِ سجّاد آئے
اور سب اہلِ حرم بادلِ ناشاد آئے
باپ اور بھائی جو بیمار کو واں یاد آئے
قبر پر باپ کی کرتے ہوئے فریاد آئے

اے پدر طول کھنچا اب میری بیماری کو
اُٹھ کے چھاتی سے لگا لیجیے آزاری کو


(2)
آپ سے اپنی اسیری کے کہوں کیا حالات
کھینچا کھینچا میں پھرا اے پدرِ نیک صفات
قید خانے میں عجب طور کے دیکھے آفات
آپ سے چھٹ کے نہ میں چین سے سویا اِک رات

آنکھ گر حالتِ غش میں کبھی کُھل جاتی تھی
کان میں نالہء زہرا کی صدا آتی تھی


(3)
اس قدر پردہ نشینوں کو ستاتے تھے شریر
کوئی روتی تھی تو دکھلاتے تھے نیزہ بے پیر
نالہ کر سکتا نہ تھا کوئی سواۓ زنجیر
سفرِ شام کی ایذا کی کروں کیا تقریر

ایک تو طوق سے گردن کو گرانباری تھی
دوسرے پاؤں کی زنجیر بہت بھاری تھی


(4)
پاؤں کا گر میں لعینوں کو دکھاتا تھا ورم
خندہ زن ہوتے تھے جوں زخم لبِ اہلِ ستم
لوہو تلوؤں سے ٹپکتا تھا جو میرے پیہم
ہر قدم لالے کا تختہ تھا میرے زیرِ قدم

جھٹکے زنجیر کے جب فوجِ لعیں دیتی تھی
ناتوانی میرا تب ہاتھ پکڑ لیتی تھی


(5)
تیور آئے تھے ہر اِک گام پہ اے بابا امام
بید کی شکل سے لرزاں تھا میرا سب اندام
رگڑے دیتی تھی ہتھیلی کو جو اونٹوں کی زمام
صورتِ پنجہٴِ مرجاں تھا میرا ہاتھ تمام

کیا کہوں حال تھا جیسا کہ میری گردن کا
گویا تھا توق گلے میں میرے ستّر من کا


(6)
با خدا میں نے سبھی ظلم سہے بے اکراہ
آپکا سر تو ہر اِک جاں پہ تھا میرے ہمراہ
پاؤں میرا نہ ڈِگا راہِ رضا سے واللّٰہ
بیڑیاں پاؤں کی ثابت قدمی کی ہیں گواہ

سختیاں کھینچیں نہ مُنہ سے کۓ نالے میں نے
کانٹے تلوؤں میں چبھے پر نہ نکالے میں نے


(7)
ماں پھوپی میری جو ہر اک ہے مریم ثانی
بلوے میں دیکھتا تھا انکی میں سر عُریانی
پالی ہوئی آپکی گودی کی سکینہ جانی
اونٹ پر کہتی چلی جاتی تھی پانی پانی

شمر جب گھڑکیاں اس لاڈلی کو دیتا تھا
میرا بس کچھ نہیں چلتا تھا میں رو دیتا تھا


(8)
گر کسی شہر کے نزدیک پہنچتے تھے ہم
لوگ اس بستی کے آتے تھے تماشے کو بہم
پوچھتے تھے جو لعینوں سے وہ احوالِ حرم
کہتے تھے میری طرف کرکے اشارہ اظلم

اس کا کنبہ یہ چڑھا اونٹوں پہ ننگے سر ہے
یہ پھوپی اسکی ہے، یہ امّاں ہے، یہ خواہر ہے


(9)
مرقدِ شاہ پہ کرتے تھے یہ عابِد تقریر
گر پڑی آکے جو اس قبر پہ زینب دلگیر
روکے چلانے لگی اے میرے بھائی شبیر
قید سے چھٹ کے آئی ہے تمہاری ہمشیر

پیار سے حال تو کچھ اپنی بہن کا پوچھو
سختیاں قید کی اور رنج رسن کا پوچھو


(10)
اپنی ماں جائی سے پوچھو تو سفر کی حالت
کوفے میں شام میں دیکھ آئی ہے کیا کیا آفت
یاد تھی مجھ کو وصیت جو تمہاری حضرت
مجھ کو جو رنج ہوا اسکو میں سمجھی راحت

بن میرے آپ کو کس شکل سے چین آیا ہے
دھیان میرا کبھی اے بھائی حسین آیا ہے


(11)
زندگی میں تو بہت تھی میں تمہاری پیاری
تم کیا کرتے تھے کیا کیا میری خاطر داری
اپنی ماں جائی سے کیا تم کو ہے کچھ بیزاری
آج سنتے نہیں کیوں میری فغاں و زاری

اٹھ کے مرقد سے میرا حال تو دیکھو بھائی
اپنے ماتم میں کھلے بال تو دیکھو بھائی


(12)
پائنتی قبر کی کرنے لگی بانو یہ بیاں
میرے وارث میرے صاحب میں تمہیں ڈھونڈوں کہاں
در بدرِ شام کی بستی میں پھری سر عریاں
آپکے بعد پھنسی قید میں اے شاہِ زماں

بہرے خدمت نہ مجھے پاس بلایا تم نے
اپنی اس لونڈی کو ایسا ہی بھلایا تم نے


(13)
گھر میں بعد آپکے جب فوجے مخالف آئی
کرکے منہ تب سوئے مقتل میں بہوت چلایی
یا حسین ابنِ علی لُٹتی ہے یہ دُکھ پائی
بہنا بھی آپکی کہتی رہی بھائی بھائی

نہ تو حضرت مجھے آفت سے چھڑانے آئے
اور نہ اکبر میری چادر کو بچانے آئے


(14)
مرقدِ شاہ پہ یہ کہہ رہی تھی بانو کھڑی
قبرِ عباس پہ تھی بانوئے عباس پڑی
اپنا سر پیٹتی تھی غم سے ہر اک چھوٹی بڑی
جاری ہر چشم سے تھی متصل اشکوں کی لڑی

اک طرف پیٹ کے سب اہلِ حرم روتے تھے
عابد اک سمت کو گردن کئے خم روتے تھے


(15)
تھام کر دل کو یہ کرنے لگے سجاد کلام
مرقدِ شاہ پہ اس تادہ ہوں حضرت کے خیام
سار بانو نے سنا جبکہ یہ ارشادِ امام
اِدھ جلا خیمہ سرور کیا استادہ تمام

داخلِ خیمہ ہوئے جبکہ حرم سرور کے
بین سب کرنے لگے خاک سے منہ بھر بھر کے


(16)
خالی خیمے میں جو تھی مسندِ شبیر بچھی
بیچ میں خون سے آلودہ دھری تھی پگڑی
اور دھری تھی سِپرِ حمزو شمشیر علی
خالی مسند پہ نظر پڑ گئی جب زینب کی

لیکے مسند کی بلائیں یہ پُکاری زینب
بھائی کی لوہو بھری پگڑی کے واری زینب


(17)
جلوہ گر ہوتے تھے مسند پہ جو بھائی شبیر
اور مجرے کے لئے جاتی تھی اُنکی ہمشیر
سدقے میں انکے میری کرتے تھے کیا کیا توقیر
آگے مسند کے بٹھا لیتے تھے شاہِ دلگیر

میرے بیٹھے ہوئے آرام اگر کرتے تھے
بدلے تکیے کے میرے زانو پہ سر دھرتے تھے


(18)
خیمے میں کر رہی تھی زینبِ مخروں یہ بیاں
ڈیوڑھی پر سیّدِ سجّاد تھے مشغولِ فغاں
تھے کئی قوم کے مقتل سے جو نزدیک مکاں
آئے تھے خدمتِ سجّاد میں سب خوردو کلاں

کتنے شبیر کی مظلومی کا غم کھاتے تھے
کتنے بیٹھے ہوئے سجّاد کو سمجھاتے تھے


(19)
دیکھا عابد نے ہوئی رونے سے فُرصت جو ذرا
ایک جواں بیل لئے سامنے ششدر ہے کھڑا
مثل آئینہ ہے صورت کی طرف دیکھ رہا
اسکو سجّاد نے نزدیک بلاکر پوچھا

کون ہے تو جو یہ حیرت کی فراوانی ہے
اے جواں تجھکو یہ کس امر میں حیرانی ہے


(20)
عرض کی اس نے میں رکھتا ہوں زراعت اسجا
قوم اولاد اسد سے ہوں میں اک عبدِ خدا
پاسباں اپنی زراعت کا ہوں ہر صبح و مسا
میں نے اس عرصے میں دیکھے ہیں عجائب کیا کیا

تھوڑی سی فوج سے پہلے تو یہ سرور آیا
اس سے پھر لڑنے کو اک شام کا لشکر آیا


(21)
اب بیاں کیا کروں کیسی تھی وہ تھوڑی سی سپاہ
خوب ہی فوج تھی اور خوب تھا اس فوج کا شاہ
کچھ جواں اور کئی طفل تھے اسکے ہمراہ
جنکی تصویر سے ہوتی تھی خجل صورتِ ماہ

گرچہ اس فوج میں اسوار بہت تھوڑے تھے
بوئے گل تھے وہ جواں مثل صبا گھوڑے تھے


(22)
دونوں ان فوجوں سے ہر چند نہ تھا کچھ مجھے کام
پر میں یہ کہتا تھا اب دیکھے کیا ہو انجام
پھر کے چاروں طرف ان فوجوں کے دیکھا جو تمام
اس طرف کفر کی بو تھی یہاں بوئے اسلام

جو بہت فوج تھی دیکھی وہ بہت ناحق پر
اور یہ کم فوج نظر آئی سراپا حق پر


(23)
قِصّہ کوتاہ کئی روز یہ تھوڑی سی سپاہ
رہی اس فوج کے نرغیمیں کہ جوں ہالہ میں ماہ
کسی کو پہنچا بہم کھانا نہ پانی واللہ
گھوڑے بھی ٹاپتے تھے فوج میں بے دانہ و کاہ

لڑکے خیمے سے نکل پانی بس تکتے تھے
جیبیں سوکھی تھیں پا دریا پہ نہ جا سکتے تھے


(24)
تھا جو نزدیک بہت میری زراعت کا مکاں
صاف جاتی تھی وہاں تشنہ دہانوں کی فُغاں
لڑکیاں ہوتی تھیں جب پیاس کے مارے نالاں
بیبیاں کہتی تھیں اے پیاریوں یہاں پانی کہاں

انکی فریاد سے گو چھاتی پھٹی جاتی تھی
پر میں حیران تھا کچھ مجھکو نہ بن آتی تھی


(25)
شبِ عاشورہ محرم کو عجب تھا کہرام
تھوڑی سی فوج یہ مشغول تھی طاعت میں تمام
صبح کو مستیدِ جنگ ہوئے سب ساکنِ شام
میں کھڑا کہتا تھا اب دیکھیے کیا ہو انجام

نوبت نیزہ و شمشیر پھر آئی رن میں
سامنے میرے لگی ہونے لڑائی رن میں


(26)
اسطرف کے میں جوانوں کا کروں وصف اب کیا
جو گیا لڑنے کو پھر خیمے میں وہ جیتا نہ پھرا
سامنا جنگ میں ایک ایک نے لشکر کا کیا
کشتوں کے پشتے کیئے خوں کا بہایا دریا

جو پیادہ ہوا مرکب سے سواروں سے لڑا
اور تو کیا کہوں ایک ایک ہزاروں سے لڑا


(27)
شاہ کی فوج کا جب کٹ گیا لشکر سارا
فوجِ ظالم میں دوبارہ ہوا پھر نقارا
حاکمِ فوجِ مخالف نے یہ نعرہ مارا
لڑنے اب آئے گا اس شاہ کا ہر اک پیارا

اے شجاعانِ عرب اب ہے یہ ہمت کا وقت
تب شجاعت کا نہ تھا اب ہے شجاعت کا وقت


(28)
اتنے میں خیمے سے لڑنے کو گئے دو گلرو
چاند سے مکھڑو پہ ہالے سے پڑے تھے گیسو
دیکھ کر انکو یہ کہنے لگے آپس میں عدو
بھانجے اس شہِ بےکس کے ہیں دونوں خوشخو

جب وہ نکلے تھے بہت بیبیاں گھبرائی تھیں
خیمے کی ڈیوڑی تلک ساتھ چلی آئی تھیں


(29)
آکے ان دونوں نے کی ایسی ہی رن میں تلوار
کتنے پیدل کئے مجروح کئے کتنے سوار
خوب پیاسے تھے کئی دن سے وہ دونوں دلدار
سوکھے ہونٹوں پہ زباں پھیرتے تھے وہ ہر بار

زخم کھاتے تھے مگر پیٹھ نہیں دیتے تھے
برچھیاں کھاتے تھے اور نامِ علی لیتے تھے


(30)
جبکہ مارے گئے میدان میں وہ گل اندام
میں نے دیکھا تھا کہ سب کانپ گئے شہ کے خیام
انکے بعد اور کئی رن میں جواں آئے کام
دولہا اک خیمے سے نکلا تھا کے جوں ماہ تمام

پھول کی شکل سے مرجھایا تھا چہرہ اس کا
ابھی منہ پر سے بڑھایا نہ تھا سہرا اس کا


(31)
بیبیاں کہتی تھیں ہرچند کہ میداں کو نہ جا
آستیں پکڑے تھیں دولہا کی کوئی پٹکا
مادر اس دولہا کی کہتی تھی بہ فریادو بکا
بیبیوں جانے دو بیٹے کو میرے بہرے خدا

ہے یہ میدانِ شہادت اسے جی کھونے دو
سرخرو حیدرو زہرا سے مجھے ہونے دو


(32)
عمر میں گرچہ وہ دولہا تھا نہایت ہی صغیر
کھینچی پر اس نے دلیروں کی طرح سے سمشیر
لڑا اس درجہ ہی میدان میں وہ ماہِ منیر
سم سے گھوڑوں کے جو پامال ہوا وقت اخیر

زلزلہ لشکرِ ظالم میں پھر ایک بار آیا
تھوڑی اس فوج کا جب رن میں علمدار آیا


(33)
اس علمدار کی تعریف میں قاصر ہے زباں
چشمِ گردوں نے نہیں دیکھا کوئی ایسا جواں
ہالتِ خشم میں ہو جاتا تھا جوں شیر زیاں
دمِ ثابت قدمی ہوتا تھا جوں کوہ گراں

نور خرشید سا تھا عارضِ نورانی پر
چاند سی شکل تھی اور خال تھا پیشانی پر


(34)
جب کے میدان میں آیا وہ علمدارِ جری
گھوڑا تھا رانِ مبارک کے تلے شکل پری
سوکھی سی مشک تھی اک زین کے ہرنے پہ دھری
نہر میں جاتے ہی بس پہلے تو وہ مشک بھری

پھر اُسے گھیر لیا آکے جفاکاروں نے
تیر باراں کئے تنہا پہ کماں داروں نے


(35)
مشک تیروں سے بچاتا رہا کتنا وہ جواں
پر ہزاروں کے نشانوں سے وہ بچتی تھی کہاں
مشک پر تیر لگا ہو گیا پانی بھی رواں
ہاتھ تک کٹ گئے اس بازوے سرور کے وہاں

جب گرا گھوڑے سے یوں نام لیا بھائی کا
دیکھیے آن کے نقشہ میری سقّائی کا


(36)
جب المدار کی اس شہ نے سدا سن پائی
آئے جنگ گاہ میں کہتے ہوئے بھائی بھائی
اس طرحاں لاش پا روئا وو دمے تنہائی
اسکے رونے سے وہاں مجھ کو بھی رکت آئی

پھر میں سمجھا کے اب یہ رہ گیا تنہا باقی
جب المدار ہوا قتل رہا کیا باقی


(37)
لیکے وو مشکو الم شاہ گئے سوئے خیام
نکلا پھر خیمے سے اک اور جوان گل اندام
میں تو آگاہ نہ تھا کہتے تھے سب ساکنے شام
یہ جوان سورتے احمد سے مشابہ ہے تمام

اہلِ کن کہتے تھے یہ لختے جگر ہے شہ کا
اور سب مر چکے باقی یہ پسار ہے شہ کا


(38)
اسکی شمشیر زنی کی کروں کس مونہ سے سنا
آتی تھی عرش سے آواز یہی صلّی اللہ
اس اکیلے پا تو پھر ہو گیا اک ہشر بابا
خوب تلوار سے مارے بوہت اور خوب لڑا

اپنے سینے پا جب اس مہ نے سینہ کھائی تھی
بیبی اک خیمہ-؏-اقدس سے نکل آئی تھی


(39)
جبکہ مارا گیا جنگاہ میں وہ غیرتے ماہ
تنے تنہا رہا میدانے ستم میں وہ شاہ
پھر تو اس شہ پا ہوا نرغائے فوجے گمراہ
کیا بیان اسکی شجاعت کروں اللہ اللہ

اُس اکیلے پا تو تھی تیروں کی بوچار کبھی
تیر پڑتے تھے کبھی پڑتی تھی تلوار کبھی


(40)
تیغ پر تیغ لگاتے تھے اسے اہلے جفا
ذکر معبود میں مصروف تھا وہ عبد خدا
ناگہاں خیمہء اسمت میں اٹھا شور بکا
سن کے فریاد کا غل شاہ وہ خیمے میں گیا

کیا کہوں کس طرح خیمے سے وہ باہر آیا
ایک بچہ لیے ہاتھوں پا وہ سروار آیا


(41)
سامنے فوجے مخالف کے یہ پھر کی تقریر
شدیدتے پیاس سے مرتا ہے میرا تفلے سغیر
کہ رہا تھا یہ لائنوں سے ابھی وہ دلگیر
کسی بیدرد نے اس بچے کے مارا اک تیر

کچھ باجوز شکر زباں پر نہ وہ بے کس لایا
کھود کر ننھی لہد بچے کو پھر دفنایا


(42)
دفنے ماسوم سے فارغ نہ ہوا تھا وہ شاہ
یک بیک ٹوٹ پڑا اس پہ گروہے گمراہ
بیکسی اس شہئ دلگیر کی میں کیا کہوں آہ
اسکی مظلومی پا میں رویا تھا خالق ہے گواہ

بھوک میں پیاس میں جنبازی کا دم بھرتا تھا
وار وہ کھاتا تھا اور ذکرے خدا کرتا تھا


(43)
جسم پر لگتا تھا اس شاہ کے جس دم ہربہ
ایک بیبی کی میں آوازٕ خڑا سنتا تھا
باپ سے اپنے وہ کہتی تھی با فریادو بکا
مارتے ہیں میرے فرضند کو دیکھو بابا

کیسا بے کس ہے تمہارا یہ نواسا حضرت
قتل ہوتا ہے کئی روز کا پیاسا حضرت


(44)
روبرو میرے وہ شاہ خاک پا گھوڑے سے گرا
روبرو میرے وہ تھا سجدائے آخر میں جھکا
روبرو میرے کٹا تیغ سے اس شاہ کا گلا
روبرو میرے وہ سر نوک پا نیزے کی چڑھا

تیرگی روز میں اس وقت بشیددت آئی
میں یہ سمجھا کے زمانے میں قیامت آئی


(45)
دھنس پڑی خیمہٴ ناموس میں فوجے کفار
آگ سب پردہ سراچوں میں لگادی یکبار
وائلی ہائے محمد کی تھی ہر سمت پکار
ہائے اس دم کی مصیبت میں کروں کیا اظہار

آگ سے جل کے قناتیں تو وہاں گرتی تھیں
بیبیاں گودیوں میں بچے لیے پھرتی تھیں


(46)
آگ جس وقت لگادی تو نہ گزری کچھ دیر
جلکے وہ خیمے سرا ہو گیا سب راکھ کا ڈھیر
ایک بیمار جو باقی تھا بچا جلیت سے سر
دوہری زنجیروں میں جکڑا تھا اسے صورتے شیر

کیا بتاؤں تمہیں اب شکل اس آزاری کی
تھی تمہاری سی سب شکل اس آزاری کی


(47)
ننگے سر اوٹوں پا بٹھالانے لگے سب کو شریر
جانبے شام روانا لگے ہونے بے پیر
کیا کہوں راہ سے مقتل کے جو گزرے تھے اسیر
ایک لڑکی کا عجب حال تھا اسدم تغیر

مداعی کہتے تھے چپ رہ تو نہ چپ رہتی تھی
متسل ہائے پیدر ہائے پیدر کہتی تھی


(48)
مجھکو حیرت تو بڑی یہ ہے کہ تھا کون وہ شاہ
کیوں اسے قتل کیا ایسا تھا کیا اسکا گناہ
سنکے یہ عابدے مجزبتر کا ہوا حال تباہ
اُس سے اس طور سے کہنے لگے با نالہ و آہ

وہ جو برباد ہوا رن میں وہ گھر تھا میرا
جسکا سر کٹ گیا وہ شاہ پدر تھا میرا


(49)
نام سے کیا میرے بابا کے نہیں تجھکو خبر
نام اُس شاہ کا لکھا ہے درِ جنت پر
نام شبیر ہے اُس شاہ کا پر ہے بیثر
بیٹا خاتونے قیامت کا ہے احمد کا جگر

ظالموں نے اسے آفت میں پھنساکر مارا
خط حزاروں ہی لکھے گھر سے بلایاکر مارا


(50)
سجدے میں پشت پا نانا کی وہ جب ہوتا سوار
تول سجدے کو نبی دیتے بہکمے غفار
اور گلا چومتے تھے اسکا رسول مختار
لہمکا لہمی بھی فرماتے تھے شاہ ابرار

کہتے تھے احمد مختار میرے نورال این
اےہلے جنت کے ہیں سردار حسن اور حسین


(51)
جھولا جبریل جھولاتے تھے کبھی اس شہ کا
خلاعت اِیدہ سے بھیجا تھا رب الہٰ
مدحہ قرآن میں فرماتا ہے اس شہ کی خدا
ہیف اس شاہ پا بیدینوں نے کی ایسی جفا

اسکو کانڈھے پا چڑھاتے تھے رسولے عربی
اوٹ بنتے تھے کبھی اسکے لئے ختمے نبی


(52)
ساتھ بابا کے ہیں جو جو کے یہاں قتل ہوئے
ستتارہ شخص تھے ان سب میں یگانے میرے
باقی تھے اور جو انصار شہ بیکس کے
فلحقیقت وو عزیزوں سے نہ متلق کم تھے

غم سے ہر ایک دلاور کے پیمبر روئے
ڈھانپا موں فاطمہ نے خلد میں حیدر روئے


(53)
کیا یگانوں کا کروں حال با تفصیل بیان
گریا ہوتا ہے بیان کرنے سے قاصر ہے زبان
رن میں مارے گئے عباس کے دو بھائی جوان
کٹ گئے مسلمان مظلوم کے دو راہت جاں

ٹکڑے ٹکڑے ہوئے میدان میں فرضندے اکیل
دونوں مارے گئے میدان میں فرضندے اکیل


(54)
گیسوؤں والے جو دو تفل ہوئے ہیں بسر
ہائے وہ دونوں تھے میری فوپی زینب کے پسر
انکی تعریف بجا ہے وہ نہ لڑتے کیوں کر
جنکی نانی ہیں بطول اور ہے زینب مادر

پوتے تھے حضرت جعفر کے وو پیاسے دونوں
اور تھے حیدرِ صفدر کے نواسے دونوں


(55)
سہرہ باندھے ہوئے سر کٹ گیا جس دولہا کا
وہ میرا بھائی چچیرا تھا حسن کا بیٹا
دوسرا ویسا زمانے میں نہ ہوگا دولہا
رات کو بیاہ ہوا سُبحو کو وہ قتل ہوا

غم میں اس دولہا کے جب اسکی بنی روتی تھی
میرے خیمے میں اجب سینہ زینی ہوتی تھی


(56)
جسکی تلوار شجاءءِ عرب نے مانی
وہ المدار تھا شبیر کا جافر سانی
پیار کرتا تھا بہت اسکو نبی کا جانی
شہ کی بیٹی کے لئے لینے گیا تھا پانی

آشقے زار وو بابا سے سوا تھا میرا
نام عباس تھا اسکا وہ چچا تھا میرا


(57)
جسکو سب کہتے تھے ہم سورتِ محبوبِ اِلٰہ
تھا میرا بھائی حقیقی وو جواں غیرتے ماہ
خاکے نیزا وو گرا گھوڑے سے جب ناگاہ
کانپ اٹھا عرش بھی اس درد سے روئے تھے شاہ

بال کھولے ہوئے جو بیبی نکل آئی تھی
فپی زینب میری شبیر کی ماجائی تھی


(58)
شہ کے ہاتھوں پا جو اک تفل ہوا تھا بیجاں
ہال پر روئے تھے جس تفل کے سب پیر وو جواں
وہ میرا بھائی تھا چھوٹا علی اصغر ناداں
ماں کا اس بچے کی کیا حال کروں تجھ سے بیان

دیکھ کے اسکے شلوکوں کو وو جان کھوتی تھی
خالی گہوارے پہ سر اپنا دھرے روتی تھی


(59)
ہال شبیر کا خورشید سے ہے روشن تر
جس طرح حلکے پر اس پیاسے کے فیرہ خنجر
مجھکو تو ہوش نہ تھا تپ سے دمِ قتلِ پدر
پر سنا ہے وو زباں فیرتا تھا ہوٹوں پر

فپی کہتی ہیں جب اس شہ پا چھڑی چلتی تھی
روح زہرہ کی وہاں ہاتھ کھڑے ملتی تھی


(60)
رن میں جب مارا گیا تھا میرا بابا شبیر
خیمے میں تپ سے میرا ہال تھا اس دم تگیر
خیمہٴ اے اعلیٰ محمد میں در آئے تھے شریر
بہوئیں اور بیٹیاں زہرہ کی ہوئیں سب عسیر

غم سے ہونٹوں پا دم آیا تھا مجھ عذاری کا
ہال کیا تجھ سے کہوں اپنی گرفتاری کا


(61)
در بدر شام میں اعدا نے پھرایا ہم کو
بیڑی پاؤں میں پڑی توق بنہایا ہم کو
کہہ نہیں سکتے جو کچھ رنج دکھایا ہم کو
قید ظالم سے خدا نے ہے چھڑایا ہم کو

صدقے اس خاک پہ ہونے کے لئے آیا ہوں
قبر پر باپ کی رونے کے لئے آیا ہوں


(62)
رو-رو دہقاں سے کیا جبکہ یہ عابد نے بیاں
ایسا وہ رویا کہ باقی نہ رہی تاب و تواں
قبر شہ پر رہے اک روز تو سب گریہ کناں
دوسرے روز ہوئے وہاں سے مدینے کو رواں

آگے دلگیر اب اس درد کے حالات نہ کہہ
زینب و عابد و صغرا کی ملاقات نہ کہہ

20 replies on “Qaid Se Choot Ke Jab Sayyad-E-Sajjad (A.S.) Aaye”

Thanks for the message Jawaz, our aim is to provide in Urdu, Hindi and Roman English version. we are working on the complete version for the same as soon as this will be ready we will update it.

Hello Akber, we are very thankful for your interest, we were in the process to improve the user experience so that user can have the faster access to noha, marsiya, soz and salam. we will be adding more more and more….

محترم ایڈمن…
بہت عمدہ کاوش. اس مرثیہ کی ہمیں کافی تلاش تھی… لیکن اس کو شاید ٹرانسمیٹر کی مدد سے اردو رسم الخط میں لکھاگیا ہے، اس لیے اس کے اردو املا میں کافی غلطیاں آگئی ہیں…..
فرصت ملتے ہیں ہم اس کو ٹائپ کریں گے تب اردو ورژن ری لوڈ کر دینا….

ایک بات یہ کہ ہم نے اس سے پہلے ایک نوحہ اپلوڈ کیا تھا، اسے ایڈٹ کرنے کا آپشن نہیں مل رہا ہم اپنے بابا کے ایک دو سلام بھی ایڈ کرنا چاہتے ہیں

جزاک اللہ آپ کی حوصلہ افزائی ہماری ہمت میں مزید اضافے کا بایس ہے، انشاءاللہ اُردو میں ہونے والی غلطیاں بہت جلد ہی سدھار لی جائیں گی۔

آپ نوحے صلام ہمیں ای میل کر دیں، ہم انشاءاللہ جلد ہی ایڈ کر کے آپ کو لنک بھیج دیں گے۔

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