(1)
क़ैद से छूट के जब सय्यदे सज्जाद आये
और सब अहले हरम बादिले नाशाद आये
बाप और भाई जो बीमार को वां याद आये
क़ब्र पर बाप की करते हुए फर्याद आये
ऐ पदर तूल खींचा अब मेरी बीमारी को
उठके छाती से लगा लीजिये आज़ारी को
(2)
आपसे अपनी असीरी के कहूँ क्या हालात
खैंचा खैंचा मैं फिरा ऐ पदरे नेक सिफ़ात
क़ैद ख़ाने में अजब तौर के देखे आफ़ात
आप से छुट के न मैं चैन से सोया एक रात
आँख गर हालते गश मैं कभी खुल जाती थी
कान मैं नालाए ज़हरा की सदा आती थी
(3)
इस क़दर पर्दा नशीनों को सताते थे शरीर
कोई रोती थी तो दिखलाते थे नेज़ा बे पीर
नाला कर सकता न था कोई सिवाए ज़ंजीर
सफरे शाम की इज़ा की करूँ क्या तक़रीर
एक तो तौक़ से गर्दन को गराँबारी थी
दूसरे पाऊँ की ज़ंजीर बोहोत भारी थी
(4)
पाऊँ का गर मैं लईनों को दिखाता था वरम
ख़ंदाह ज़न होते थे जूं ज़ख़्म लबे एहले सितम
लोहूँ तलवों से टपकता था जो मेरे पैहम
हर क़दम लाले का तख़्ता था मेरे ज़ेरे क़दम
झटके ज़ंजीर के जब फ़ौज ए लईं देती थी
नातवानी मेरा तब हाथ पकड़ लेती थी
(5)
तेवर आए थे हर एक गाम पा ऐ बाबा इमाम
बैद की शक्ल से लरज़ां था मेरा सब अनदाम
रगड़े देती थी हथेली की जो ऊँटों की ज़माम
सूरते पंजा-ए-मरजाँ था मेरा हाथ तमाम
क्या कहूँ हाल था जैसा के मेरी गर्दन का
गोया था तौक़ गले में मेरे सत्तर मन का
(6)
बा ख़ुदा मैंने सभी ज़ुल्म सहे बे एकराह
आपका सर तो हर एक जाँ पा था मेरे हमराह
पाऊँ मेरा ना डिगा राहे रज़ा से वल्लाह
बेड़ियाँ पाऊँ की साबित क़दामी की हैं गवाह
सख़्तियाँ खेंची ना मूँह से किये नाले मैं ने
काँटे तलवों में चुभे पर ना निकाले मैं ने
(7)
मां फुपी मेरी जो हर इक है मरयम सनी
बलवे में देखता था उनकी मैं सर उरयानी
पाली हुई आपकी गोदी की सकीना जानी
ऊँट पर कहती चली जाती थी पानी पानी
शिमर जब घुड़कियाँ उस लाडली को देता था
मेरा बस कुछ नहीं चलता था मैं रो देता था
(8)
गर किसी शहर के नज़दीक पहुँचते थे हम
लोग उस बसती के आते थे तमाशे को बहम
पूछते थे जो लईनों से वो अहवाल ए हरम
कहते थे मेरी तरफ़ करके इशाराह अज़लम
इस का कुनबा ये चढ़ा ऊँटों पा नंगे सर है
ये फूपी इसकी है ये अम्मा है ये ख़वाहर है
(9)
मरक़दे शाह पा करते थे ये आबिद तक़रीर
गिर पड़ी आके जो उस क़ब्र पा ज़ैनब दिलगीर
रोके चिल्लाने लगी ऐ मेरे भाई शब्बीर
क़ैद से छुट के आई है तुम्हारी हमशीर
प्यार से हाल तो कुछ अपनी बहन का पूछो
सख़्तियाँ क़ैद की और रंज रसन का पूछो
(10)
अपनी माँ जाई से पूछो तो सफ़र की हालत
कूफ़े में शाम में देख आई है क्या क्या आफ़त
याद थी मुझको वसीयत जो तुम्हारी हज़रत
मुझको जो रंज हुआ उसको मैं समझी राहत
बिन मेरे आपको किस शक्ल से चैन आया है
ध्यान मेरा कभी ऐ भाई हुसैन आया है
(11)
ज़िंदगी में तो बोहोत थी मैं तुम्हारी प्यारी
तुम किया करते थे क्या क्या मेरी ख़ातिर दारी
अपनी माँ जाई से क्या तुमको है कुछ बेज़ारी
आज सुनते नहीं क्यूँ मेरी फ़ुग़ाँ-ओ-ज़ारी
उठके मरक़द से मेरा हाल तो देखो भाई
अपने मातम में खुले बाल तो देखो भाई
(12)
पाईंती क़ब्र की करने लगी बानो ये बयाँ
मेरे वारिस मेरे साहब मैं तुम्हें ढूँडू कहाँ
दर बदर शाम की बस्ती में फिरी सर उरयां
आपके बाद फँसी क़ैद में ऐ शाहे ज़मां
बहरे ख़िदमत ना मुझे पास बुलाया तुमने
अपनी इस लौंडी को ऐसा ही भुलाया तुमने
(13)
घर में बाद आपके जब फ़ौजे मुख़ालिफ़ आई
करके मूँह तब सूए मक़तल मैं बोहोत चिल्लाई
या हुसैन इबने अली लुटती है ये दुःख पाई
बहना भी आपकी कहती रही भाई भाई
ना तो हज़रत मुझे आफ़त से छुड़ाने आए
और ना अकबर मेरी चादर को बचाने आए
(14)
मरक़दे शाह पा ये कह रही थी बानो खड़ी
क़ब्रे अब्बास पा थी बानुए अब्बास पड़ी
अपना सर पीटती थी ग़म से हर एक छोटी बड़ी
जारी हर चश्म से थी मुत्तसिल अशकों की लड़ी
एक तरफ़ पीट के सब एहले हरम रोते थे
आबिद एक सिम्त को गर्दन किये ख़म रोते थे
(15)
थाम कर दिल को ये करने लगे सज्जाद कलाम
मरक़दे शाह पा इस तादा हुए हज़रत के ख्याम
सार बानो ने सुना जबके ये इरशादे इमाम
अध जला ख़ैमाए सरवर किया इस्तादा तमाम
दाख़िले ख़ैमा हुए जबके हरम सरवर के
बैन सब करने लगे ख़ाक से मुँह भर भर के
(16)
ख़ाली ख़ैमे में जो थी मसनदे शब्बीर बिछी
बीच में ख़ून से आलूदा धरी थी पगड़ी
और धरी थी सिप-रे-हमज़ाओ शमशीर अली
ख़ाली मसनद पा नज़र पड़ गई जब ज़ैनब की
लेके मसनद की बालाऐं ये पुकारी ज़ैनब
भाई की लोहू भरी पगड़ी के वारी ज़ैनब
(17)
जलवा गर होते थे मसनद पा जो भाई शब्बीर
और मुजरे के लिए जाती थी उनकी हमशीर
सदक़े मैं उनके मेरी करते थे क्या क्या तौक़ीर
आगे मसनद के बिठा लेते थे शाहे दिलगीर
मेरे बैठे हुए आराम अगर करते थे
बदले तकये के मेरे ज़ानू पा सर धरते थे
(18)
ख़ैमे में कर रही थीं ज़ैनबे मख़रूँ ये बयाँ
डिवड़ी पर सय्यादे सज्जाद थे मशख़ूले फुग़ाँ
थे कई क़ौम के मक़तल से जो नज़दीक मकाँ
आए थे ख़िदमते सज्जाद में सब ख़ुरदो कलाँ
कितने शब्बीर की मज़लूमी का ग़म खाते थे
कितने बैठे हुए सज्जाद को समझते थे
(19)
देखा आबिद ने हुई रोने से फ़ुरसत जो ज़रा
इक जवाँ बेल लिए सामने शशदर है खड़ा
मिस्ल आईना है सूरत की तरफ़ देख रहा
उसको सज्जाद ने नज़दीक बुलाकर पूछा
कौन है तू जो ये हैरत की फ़रावानी है
ऐ जवाँ तुझको ये किस अम्र में हैरानी है
(20)
अर्ज़ की उसने मैं रखता हूँ ज़राअत इसजाँ
क़ौम औलाद असद से हूँ मैं इक अब्दे ख़ुदा
पासबाँ अपनी ज़राअत का हूँ हर सूबहो मसा
मैंने इस अरसे में देखे हैं अजाइब क्या क्या
थोड़ी सी फ़ौज से पहले तो ये सरवर आया
उससे फिर लड़ने को इक शाम का लश्कर आया
(21)
अब बयाँ क्या करूँ कैसी थी वो थोड़ी सी सिपाह
ख़ूब ही फ़ौज थी और ख़ूब था उस फ़ौज का शाह
कुछ जवाँ और कई तिफ़्ल थे उसके हमराह
जिनकी तस्वीर से होती थी ख़ज्ल सूर-ते-माह
गरचे उस फ़ौज में अस्वार बोहोत थोड़े थे
बूए गुल थे वो जवाँ मिस्ल सबा घोड़े थे
(22)
दोनों उन फ़ौजों से हर चंद ना था कुछ मुझे काम
पर मैं ये कहता था अब देखये क्या हो अंजाम
फिर के चारों तरफ़ उन फ़ौजों के देखा जो तमाम
उस तरफ़ कुफ़्र की बू थी यहाँ बूए इस्लाम
जो बोहोत फ़ौज थी देखी वो बोहोत नाहक़ पर
और ये कम फ़ौज नज़र आई सरापा हक़ पर
(23)
क़िस्सा कोताह कई रोज़ ये थोड़ी सी सिपाह
रही उस फ़ौज के नरग़े में के जूं हाला में माह
किसी को पहुँचा बाहम खाना ना पानी वल्लाह
घोड़े भी टापते थे फ़ौज में बे दाना-ओ-काह
लड़के ख़ैमे से निकल पानी बस तकते थे
जीबें सूखी थीं पा दरया पा ना जा सकते थे
(24)
था जो नज़दीक बोहोत मेरी ज़राअत का मकाँ
साफ़ जाती थी वहाँ तशनादहानों की फुग़ाँ
लड़कियाँ होती थीं जब प्यास के मारे नालाँ
बीबियाँ कहती थीं ऐ प्यारियों यहाँ पानी कहाँ
उनकी फ़रयाद से गो छाती फटी जाती थी
पर मैं हैरान था कुछ मुझको ना बन आती थी
(25)
शबे आशूराह मुहर्रम को अजब था कोहराम
थोड़ी सी फ़ौज ये मशग़ूल थी ताअत में तमाम
सूबह को मुस्तईद-ए-जंग हुए सब साकिने शाम
मैं खड़ा कहता था अब देखिए क्या हो अंजाम
नौबते नेज़ा-ओ-शमशीर फिर आई रन में
सामने मेरे लगी होने लड़ाई रन में
(26)
इस तरफ़ के मैं जवानों का करूँ वसफ अब क्या
जो गया लड़ने को फिर ख़ैमें में वो जीता ना फ़िरा
सामना जंग में एक एक ने लश्कर का किया
कुश्तो के पुश्ते किये खूँ का बहाया दरिया
जो प्यादा हुआ मरकब से सवारों से लड़ा
और तो क्या कहूँ एक एक हज़ारों से लड़ा
(27)
शाह की फ़ौज का जब कट गया लश्कर सारा
फौजे ज़ालिम मैं दोबारा हुआ फिर नक़्क़ारा
हाकिमे फौजे मुखालिफ ने ये नारा मारा
लड़ने अब आएगा उस शाह का हर एक प्यारा
ऐ शुजाआने अरब अब ये हिम्मत का वक़्त
तब शुजाअत का ना था अब है शुजाअत का वक़्त
(28)
इतने मैं खैमे से लड़ने को गए दो गुलरू
चाँद से मुखडो पा हाले से पड़े थे गेसुं
देख कर उनको ये कहने लगे आपस मैं उदू
भांजे उस शहे बेकस के हैं दोनों खुश खू
जब वो निकले थे बोहत बीबियां घबराई थीं
खेमें की डिवडी तलक साथ चली आयी थीं
(29)
आके उन दोनों ने की ऐसी ही रन मैं तलवार
कितने पैदल किये मजरूह किये कितने सवार
खूब प्यासे थे कई दिन से वो दोनों दिलदार
सूखे होंठों पा ज़बान फेरते थे वो हर बार
ज़ख्म खाते थे मगर पीठ नहीं देते थे
बरछियाँ खाते थे और नामे अली लेते थे
(30)
जबके मारे गए मैदान मैं वो गुल अंदाम
मैंने देखा था के सब काँप गए शह के खयाम
उनके बाद और कई रन में जवां आये काम
दूल्हा एक खेमे से निकला था के जूं माहे तमाम
फूल की शक्ल से मुरझाया था चेहरा उसका
अभी मुंह पर से बढ़ाया न था सेहरा उसका
(31)
बीबियां कहती थीं हरचंद के मैदान को न जा
आस्ती पकड़े थी दूल्हा की कोई पटका
मादर उस दूल्हा की कहती थी बा फ़रयादो बुका
बीबियों जाने दो बेटे को मेरे बहरे खुदा
है ये मैदाने शहादत इसे जी खोने दो
सुर्खरू हैदरो ज़हरा से मुझे होने दो
(32)
उम्र मैं गरचे वो दूल्हा था निहायत ही सगीर
खैंचि पर उसने दिलेरों की तरह से शमशीर
लड़ा इस दर्जा ही मैदान मैं वो माहे मुनीर
सुम से घोड़ों के जो पामाल हुआ वक़्ते अखीर
ज़लज़ला लश्करे ज़ालिम मैं फिर एक बार आया
थोड़ी उस फ़ौज का जब रन में अलमदार आया
(33)
उस अलमदार की तारीफ मैं क़ासिर है ज़बां
चशमे गरदूँ ने नहीं देखा कोई ऐसा जवां
हालाते ख़श्म में हो जाता था जूं शेरे ज़ियां
दमे साबित क़दमी होता था जूं कोहे गरां
नूर खुर्शीद सा था आरिज़े नूरानी पर
चाँद सी शक्ल थी और खाल था पेशानी पर
(34)
जबके मैदान मैं आया वो अलमदारे जरी
घोड़ा था राने मुबारक के तले शकले परी
सूखी सी मश्क थी इक ज़ीन के हरने पा धरी
नहर में जाते ही बस पहले तो वो मश्क भरी
फिर उसे घेर लिया आके जफ़ाकारों ने
तीर बारां किये तन्हा पा कमादारों ने
(35)
मश्क तीरों से बचाता रहा कितना वो जवां
पर हज़ारों के निशानों से वो बचती थी कहां
मश्क पर तीर लगा हो गया पानी भी रवां
हाथ तक कट गए उस बाजु-ए-सरवर के वहां
जब गिरा घोड़े से यूँ नाम लिया भाई का
देखिये आन के नक्शा मेरी सक़्क़ाई का
(36)
जबअलमदार की उस शह ने सदा सुन पाई
आये जंग्गाह मैं कहते हुए भाई भाई
इस तरहाँ लाश पा रोया वो दमे तनहाई
उसके रोने से वहां मुझको भी रिक़्क़त आई
फिर मैं समझा के अब ये रह गया तन्हा बाक़ी
जब अलमदार हुआ क़त्ल रहा क्या बाक़ी
(37)
लेके वो मश्को अलम शाह गए सूए खयाम
निकला फिर खेमे से एक और जवां गुलअंदाम
मैं तो आगाह ना था कहते थे सब साकिने शाम
ये जवां सुरते अहमद से मुशाबेह है तमाम
एहले किन कहते थे ये लख्ते जिगर है शह का
और सब मर चुके बाक़ी ये पिसार है शह का
(38)
उसकी शमशीर ज़नी की करूँ किस मूँह से सना
आती थी अर्श से आवाज़ यही सल्लेअला
उस अकेले पा तो फिर हो गया इक हशर बपा
ख़ूब तलवार से मारे बोहोत और ख़ूब लड़ा
अपने सीने पा जब उस मह ने सिना खाई थी
बीबी एक ख़ैमा-ए-अक़दस से निकल आई थी
(39)
जबके मारा गया जंगाह में वो ग़ैरते माह
तने तनहा रहा मैदाने सितम में वो शाह
फिर तो उस शह पा हुआ नरग़ाए फ़ौजे गुमराह
क्या बयाँ उसकी शजाअत करूँ अल्लाह अल्लाह
उस अकेले पा तो थी तीरों की बौछार कभी
तीर पड़ते थे कभी पड़ती थी तलवार कभी
(40)
तेग़ पर तेग़ लगाते थे उसे एहले जफ़ा
ज़िक्रे माबूद में मसरूफ था वो अब्दे ख़ुदा
नागहां ख़ैमा-ए-असमत में उठा शोरे बुका
सुनके फ़रयाद का ग़ुल शाह वो ख़ैमे में गया
क्या कहूँ किस तरह ख़ैमे से वो बाहर आया
एक बच्चा लिये हाथों पा वो सरवर आया
(41)
सामने फ़ौजे मुख़ालिफ़ के ये फ़िर की तक़रीर
शिददते प्यास से मरता है मेरा तिफले सग़ीर
कह रहा था ये लईनों से अभी वो दिलगीर
किसी बेदर्द ने उस बच्चे के मारा इक तीर
कुछ बाजुज़ शुक्र ज़बां पर ना वो बेकस लाया
खोद कर नन्ही लहद बच्चे को फिर दफ़नाया
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