क्या हज़रते ज़ैनब के पिसर एहले वफ़ा थे
दोनों गोहर मदने तस्लीमो रेज़ा थे
परवनाये शम्मे रूखे शाहे शोहदा थे
बचपन से मोहम्मद के नवासे पा फ़िदा थे
सदमा न गवारा था इमामे अज़ली का
दम भरते थे हर वक़्त हुसैन इब्ने अली का
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आशूर को जिसदम हुई आगाज़ लड़ाई
हज़रत के रफीकों ने रज़ा जंग की पाई
जब दाखिले जन्नत हुवे वो शह के फिदाई
मुस्लिम के यतीमों ने भी जॉन अपनी गवाई
हज़रत को बड़े दाग मिले तश्नालबी मैं
मातम की सफे बिछ नामूसे नबी मैं
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घर मैं ये तलातुम था के आयें अली अकबर
कि अरज़ फूफी से के ज़रा सुनिए तो मादर
रोती हुई घबराके उठी ज़ैनबे मुज़्तर
पास आकर कहा ख़ैर तो है ऐ मेरे दिलबर
मातम मैं बजां होश हमारे नहीं बेटा
भाई तो कही रन को सिधारे नहीं बेटा
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रो रो के तब ये कहने लगे अकबरे ज़ीशान
हम जीतें हैं भला जायँगे वोह क्यों कर सरे मैदान
जिस वक़्त से मुस्लिम के पिसर हो गए बेजाँ
आसूँ नहीं थमते शहे दीं के किसी उन्वान
इस रंजो मुसीबत मैं ये ग़म और ग़ज़ब है
अब आपके फ़रज़न्दों को रुखसत की तलब है
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हज़रत जो रज़ा देने में फरमाते हैं इंकार
वो दोनों जरी पायों पा गिर जाते हैं हर बार
समझते हैं छाती से लगाकर शहे अबरार
माँ तुमको रज़ा देने न देने की है मुख्तार
इस बाब मैं रो रो के न शब्बीर से पूछो
मरने का इरादा है तो हमशीर से पूछो
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फरमाने लगी ज़ैबने अली सुनके ये गुफ़्तार
है है वोही मुख्तार हैं ज़ैनब नहीं मुख्तार
जाकर मेरी जानिब से कहो ऐ मेरे दिलबर
भय्या तुम्हे ज़हरा की क़सम कीज्यो न इंकार
राज़ी बा रज़ा नज़रे खुदा करती हूं इनको
मैं अपने भतीजों पा फ़िदा करती हूं इनको
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मुमकिन है के जॉन अपनी बचाये मेरे प्यारे
ख़ादिम है नमकखार हैं फिदाई हैं तुम्हारे
सदमा था मुझे ये के न क्यों रन को सिधारे
मरने का उन्हें खेल मैं धियान आ गया बारे
रोकेंगे उन्हें आप तो ग़म खाऊँगी भाई
बस पायों पा गिरने को चली आऊँगी भाई
کیا حضرت زینب کے پسر اہل وفا تھے
دونوں گہر معدن سلیم و رضا تھے
پروا ںۂ شمع رخ شاہ شہدا تھے
بچپن سے محمّد کے نواسے پہ فدا تھے
صدمہ نہ گوارہ تھا امام ازلی کا
دم بھرتے تھے ہر وقت حسین ابن علی کا
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عاشور کو جسدم ہوئی آغاز لڑائی
حضرت کے رفیقو ں نے رضا جنگ کی پائی
جب داخل جنّت ہوۓ وہ شہ کے فدائی
مسلم کے یتیموں نے بھی جاں اپنی گوائی
حضرت کو بڑے داغ ملے تشنہ لبی میں
ماتم کی صفیں بچھ گیئں نا موس نبی میں
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گھر میں یہ طلاطم تھا کے آۓ علی اکبر
کی عرض پھوپی سے کہ ذرا سنئے تو مادر
روتی ہوئی گھبرا کے اٹھی زینب مضطر
پاس آ کے کہا خیر تو ہے اے میرے دلبر
ماتم میں بجا ہوش ہمارے نہی بیٹا
بھائی تو کہیں رنکو سدھا رے نہی بیٹا
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رورو کے یہ تب کہنے لگے اکبر ذیشاں
ہم جیتے ہیں جا ینگے وہ کیو نکر سرمیداں
جسوقت سے مسلم کے پسر ہو گئے بیجاں
آنسوں نہی تھمتے شہ دیں کے کسی عنواں
اس رنج و مصیبت میں یہ غم اور غضب ہے
اب آپکے فرزندونکو کو رخصت کی طلب ہے
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حضرت جو رضا دینے میں فرماتے ہیں انکار
وہ دونوں جری پاؤں پہ گر جاتے ہیں ہر بار
سمجھاتے ہیں چھاتی سے لگا کر شہ ابرار
ماں تمکو رضا دینے نہ دینکی ہے مختار
اس باب میں رورو کے نہ شبیر سے پوچھو
مرنکا ارادہ ہے تو ہمشیر سے پوچھو
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فرمانے لگیں بنت علی سنکے یہ گفتار
ہے ہے وہ ہی مختار ہیں زینب نہی مختار
جا کر مری جانب سے کہو اے مرے دلدار
بھییا تمہیں زہرہ کی قسم کئجو نہ انکار
راضی بہ رضا نزر خدا کرتی ہوں انکو
میں اپنے بھتیجو نپہ فدا کرتی ہوں انکو
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ممکن ہے کہ جاں اپنی بچائیں میرے پیارے
خادم ہیں نمکخوارہیں فدوی ہیں تمہارے
صدمہ تھا مجھے یہ کہ نہ کیوں رنکو سدھارے
مرنکا انہیں کھیل میں دھیان آ گیا بارے
رو کینگے انہیں آپ تو غم کھا ونگی بھائی
بس پاؤنپہ گرنیکو چلی آؤنگی بھائی