जबके बिन्ते शहे लोलक ने रहलत पाई
आलमे फ़ुरक़ते अहमद से फरागत पाई
दोलते फसले पदरे ग़म की बदौलत पाई
नक़द जॉन देके पयम्बर की ज़ियारत पाई
सैकड़ों दुख सहे अट्ठारा बरस के सिन में
ख़ातेमा जिनका हुआ पिछले पछत्तर दिन में
घर मैं खातून क़यामत के क़यामत थी अयाँ
मुंह पा रूमाल रखे रोते थे शाहे मर्दां
ग़म से बेताब थे सरदारे जवनाने जिनां
एक तरफ ज़ैनबो कुलसूम थीं मशग़ूले फुगाँ
शोरे गिरया से न कुछ बात सुनी जाती थी
दरो दीवार से रोने की सदा आती थी
दे चुके जबके अली फातिमा को ग़ुस्लो कफ़न
थी सदा आले मोहम्मद की बसद रंजो महन
आओ ए ज़ैनबो कुलसूम हुसैनो हसन
देखलो आखरी दीदार तो करना शेवन
चाँद सी शकल ये अब खाक के अंदर होगी
हशर तक फिर ये ज़ियारत न मयस्सर होगी
आके हसनैन सरे लाश पुकारे अम्मा
बचपने पर न किया रहम हमारे अम्मा
गेसुं उलझें हैं इन्हें कौन सवारे अम्मा
देखो रोते हैं खरे आप के प्यारे अम्मा
नूर चश्मों के लिए आँख नहीं खोलती हो
क्या खता हमसे हुई है जो नहीं बोलती हो
कहके ये लाश से लिपटे वो बसद रंजों मेहन
आयी लाशे से सदा हाय हुसैन हाय हसन
हाथ मय्यत के उठे टूट गए बन्दे कफन
प्यार लिपटा के किया बच्चों को और चूमे दहन
मां पसे मर्ग भी बच्चों पा फ़िदा होती थी
बेटे मदार से न मां उनसे जुदा होती थी
One comment(s) on “Jabke Binte Shahe Lolak ne rehlat payi”
mashallah marsiya bohot accha hai…