वफ़ा परस्त वफ़ा का निशान लेके चले
हुसैनियत का वही आन बान लेके चले
पुराने ग़म का नया तरजुमान लेके चले
अलम के साये मे हम एक जहान लेके चले
हम इस अलम को लिए चारों सिम्त घूमेंगे
दुरूद पढ़ के इसे बार बार चूमेंगे
ये वो अलम है जो दरबारे पंजेतन मे रहा
ज़हे नसीब इमामत की अंजुमन में रहा
कभी हिजाज़ मे चमका कभी यमन मे रहा
हर एक मुक़ाम पा ये अपने बाँकपन मे रहा
हम इस आलम को लिए चारों सिम्त घूमेंगे
दुरूद पढ़ के इसे बार बार चूमेंगे
यही अलम तो रसूले ज़मन के हाथ मे था
कभी ये हैदरे खैबर शिकन के हाथ मे था
बा वक़्त सुल्ह इमामे हसन के हाथ मे था
कभी हुसैन ग़रीबुल वतन के हाथ में था
हम इस अलम को लिए चारों सिम्त घूमेंगे
दुरूद पढ़ के इसे बार बार चूमेंगे
इसी अलम ने हर एक क़ल्ब को झंझोड़ दिया
इसी अलम ने तो ज़हनों पा नक़्श छोड़ दिया
इसी अलम ने ज़माने के रुख़ को मोड़ दिया
यज़ीदियत का इसी ने ग़ुरूर तोड़ दिया
हम इस अलम को लिए चारों सिम्त घूमेंगे
दुरूद पढ़ के इसे बार बार चूमेंगे
हम इस अलम के सहारे कलाम करते हैं
ज़बान खोल के ज़िक्रे इमाम करते हैं
हम इस अलम का बड़ा एहतराम करते हैं
बड़े अदब से हम इस को सलाम करते हैं
हम इस अलम को लिए चारों सिम्त घूमेंगे
दुरूद पढ़ के इसे बार बार चूमेंगे
अगर न इसको उठाते तो आज क्या होता
वफ़ा के नाम से कोई न आशना होता
न कर्बला का न काबे का तज़करा होता
रसूले पाक का इस्लाम मिट गया होता
हम इस अलम को लिए चारों सिम्त घूमेंगे
दुरूद पढ़ के इसे बार बार चूमेंगे