ऐ मोमिनो हुसैन से मक़्तल क़रीब है
शहरे मदीना दूर है जंगल क़रीब है
आखिर है उम्र मंज़िले अव्वल क़रीब है
ज़हरा का चाँद छुपता है बादल क़रीब है
लेने के वास्ते मलकुल मौत आते हैं
शब्बीर अपने पाऊँ से मक़्तल को जाते हैं
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दो दो क़दम पा होते हैं अत्फाल बे हवास
एक पानी पानी कहता और एक प्यास प्यास
यूँ काफिला है गिर्द अलमदारे हक़ शनास
जिस तरह प्यासे हश्र में कोसर के आस पास
अब्बास शाने अब्रे करम की दीखते हैं
एक दम में सारी फौज को पानी पिलाते हैं
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फरमाते हैं हुसैन ग़ज़ब की तपिश है हाए
क्या हो जो ऐसी धूप मैं पानी न कोई पाए
कहते हैं खैरख्वाह न वो दिन खुदा दिखाए
मोला जवाब देते हैं अल्लाह ही बचाए
पानी तो मंज़िलों मैं अभी पीते जाओगे
आता है एक मक़ाम के क़तरा न पाओगे
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इतने मे सुबहो मंज़िले आखिर अयाँ हुई
लेकिन वो सुबहो सिब्ते नबी को कहाँ हुई
जिसजाँ सवारी रुक के न आगे रवां हुई
हैराँ सिपाहे खुसरवे कौनो मकाँ हुई
बदले छः राहवार शहे खासोआम ने
लेकिन कदम उठाया न इक खुशखिराम ने
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जुम्बिश जो मरकबो मैं न पाई हुसैन ने
एक मुश्त खाक़ झुक के उठाई हुसैन ने
खुद सुघी और बहन को सुंघाई हुसैन ने
हमशीर की सुनी ये दुहाई हुसैन ने
है है ये ख़ाक फेको मेरी जान जाती है
भय्या तुम्हारे ख़ून की बू इसमें आती है
Jazakallah